Friday, March 1, 2013

सुबह क़ी चाय


सुबह सपने में आँख खुली तब
खुद को तुम्हारे घर के सोफे पे पाया
अकेली ही बैठी चाय पी रही थी

तुम तो अपने कमरे में अब तक
सो रहे थे, इतवार का दिन जो हुआ
आज के दिन सोना तुम्हारी ज़िद्द थी


फिर सोचा कि तुम्हे जगा दूं अब
आख़िर एक ही दिन तो है आज मिला 
पिछले कई दिन से तो अकेली ही थी

चाय ले कर तुम्हारे सिरहाने पहुँची जब
तो रुक जाऊं, सोने दूं एक मन किया
मगर फिर थोड़ा स्वार्थी हो गयी थी

गीले बाल तुम्हारे काँधे पे फैलाए जब
तुमने सोई सी आँखे खोलकर देखा
और उनमे कुछ देखकर शर्मा गयी थी


इतने दिन का एकाकीपन छू हुआ तब
जब तुमने अपनी बाहों में भर लिया
और फिर मेरी आँख खुल गयी थी

देखा वही मेरा सूना घर है अब
न सोफा न बिस्तर न ही चाय
स्वप्न ही था, तो ये क्या सोच रही थी

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