इस दिल के पान के पत्ते का
इक कोना चिर के कहाँ गिरा
मिटटी पानी या हवा हुआ
हमको लेकिन फिर न मिला
कटे फटे इस दिल कों अब
बस यूँही लेकर फिरते है
कुछ चाक पैबंद लगा के
अब आकार कों पूरा करते है
आकार जो पूरा हो भी गया
फिर जान कहा से फूकेंगे
कुछ ज़ख्म ये दिल का ऐसा है
खुद दर्द ही जिसका मरहम है
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